Friday, May 25, 2012


शाकाहार –भगवान का आदेश

भगवदगीता में भगवान कहते हैं -
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति |
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ||9.26
जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त द्वारा प्रेम पूर्वक अर्पण किया हुआ वह सब मैं स्वीकार करता हूँ ।
भगवान कृष्ण अपने आदेश मे यह साफ कह रहे हैं की उन्हे क्या भेंट किया जाये वे हमसे श्रद्धापूर्वक फल, पत्ते, फूल और  जल चाहते हैं  । भगवद गीता में ये संदेश बताता है की ईश्वर को केवल शुद्ध (शाकाहार) भोजन ही प्रस्तुत किया जा सकता है और फिर प्रसाद के रूप में उसे वापस प्राप्त करना चाहिए इसके अतिरिक्त मांसाहारी भोजन  ना तो भगवान को अर्पित किया जा सकता है और ना ही उसे ग्रहण किया जा सकता है क्योंकि वो आपके आराध्य भी स्वीकार नही करते और ना ही उसे ग्रहण करने का आदेश देते हैं...क्योंकी वास्तव मे शास्त्र अपनी जिव्हा के स्वाद के लिए पशुवध की अनुमति नही देते ।हमारी वैदिक सनातन संस्कृति हमेशा पशु-प्राणी के साथ अहिंसा के सिद्धांत की पक्षधर रही है साथ ही यह माना जाता है की  मांसाहारी भोजन मस्तिष्क तथा आध्यात्मिक विकास के लिए हानिकारक है.....
भगवान कृष्ण ने भगवदगीता में सदैव जीवन के तीन गुणों का विश्लेषण किया..... सतोगुण , रजोगुण , तमोगुण 
शाकाहार को सात्विक आहार माना जाता है और यह सतगुण का परम उदाहरण है वहीं आवश्यकता से अधिक तला भुना  ग्रहण करना भी राजसिक यानि तमोगुणी माना  गया है।
और मांसाहार को इसलिये अच्छा नही माना जाता,क्योंकि मांस पशुओं की हत्या से मिलता है, अत: मांसाहार  तामसिक पदार्थ है जिसे ग्रहण करने से तामसिक प्रवृतियां जन्म लेने लगती हैं और कहीं ना कहीं जीवन मे अवसाद का कारण बनती हैं।
इसे भगवान ने भगवदगीता के सत्रहवें अध्याय मे विस्तार से समझाया है (अध्याय 17 श्लोक 8-9-10)
आयुः सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः॥8
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः॥9 
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्‌।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्‌॥10  

भावार्थ :  आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले, रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहने वाले (जिस भोजन का सार शरीर में बहुत काल तक रहता है, उसको स्थिर रहने वाला कहते हैं।) तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय- ऐसे आहार अर्थात्‌ भोजन करने के पदार्थ सात्त्विक पुरुष को प्रिय होते हैं
कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, बहुत गरम, तीखे, रूखे, दाहकारक और दुःख, चिन्ता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाले आहार अर्थात्‌ भोजन करने के पदार्थ राजस पुरुष को प्रिय होते हैं॥9
जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त, बासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी है, वह भोजन तामस पुरुष को प्रिय होता है॥10
कहते हैं कि इन्सान को सदैव सात्विक आहार का ही सेवन करना चाहिए, क्योंकि प्राकृतिक नियम के अनुसार मानव का भोजन फलाहार और शाकाहार ही है.जो कि शारीरिक निरोगता, शक्तिवर्द्धन और दीर्घायुष्य जैसी सतोगुणी शक्तियों की प्राप्ति का एकमात्र स्त्रोत है.
इस प्रकार सच्चिदानंद जगतपालक भगवान श्रीकृष्ण भगवदगीता में अपने बच्चों का मार्गदर्शन करते हुए हमें भौतिक जीवन में आहार क्रिया के बारे में विस्तार से बता रहे हैं....आज के दौर में जिस तरह से शाकाहार लोकप्रिय होता जा रहा है यकिनन उसके कारण भौतिक नैतिक और आर्थिक हो सकते हैं ...स्वास्थ्य कि दृष्टी से भी मांसाहार के प्रति लोग उदासीन हो रहे हैं लेकिन मांसाहार को त्यागने का सबसे बड़ा लाभ आध्यात्मिक है....मांसाहार कहीं ना कहीं आपकी आध्यात्मिक प्रगति में बाधक बनता है ....ईश्वर से जुड़ने के लिए सात्विक  होने के प्रयास निरंतर फायदा देते हैं .....मांसाहार छोड़ना शुरुआत मे एक बहुत बड़ा त्याग लगता है लेकिन वस्तुत ऐसा है नही ....अपनी जिव्हा और मन को नियंत्रण  किया जा सकता है और धीरे धीरे आपको खुद अपना चित्त, शरीर और मन प्रफुल्लित लगेगा....   शाकाहार ना केवल शरीर को स्वस्थ रख सकता है बल्कि सकारात्मक सोच का निमार्ण करता है साथ ही  ईश्वर से जुड़ने का मार्ग भी प्रशस्त करता है। अगर हम भगवान को मानते हैं तो हमे अपने वैदिक शास्त्रों के  आदेशों का पालन करने के पूरे प्रयास करने चाहिए और हमारे वैदिक सनातन शास्त्र हमें कभी यह इजाजत नही देते की हम सिर्फ अपने स्वाद के लिए निरीह बेजुबान जानवरों को मारकर खांए....अपने पेट को कब्रिस्तान बनने देने से रोकना चाहिए ....वैसे भी भगवान कर्म के सिद्धांत को प्रतिपादित करते हुए कहते हैं की हर कर्म का फल होता है ऐसे मे पूरी जागृत चेतना के होते हुए हमें सिर्फ अपने स्वाद के लिए इस तरह के निम्न कर्मों को करने से बचना चाहिए। आत्मसंतुष्टी के लिए जीव हत्या कर उन्हे खाना निश्चित ही पाप खाने के समान है......यदि हम मांसाहारी हैं, तो इसके लिए पहले हमें मूक एवं निर्बल पशुओं की हत्या से जुड़ना पडता है और हत्या-हिंसा के कारण  तमाम अशांतियों का जन्म होता है।  शाकाहार के लिए  हिंसा की जरूरत नहीं पडती है, इसलिए आत्मा को शांति और तृप्ति मिलती है। निरामिष आहार से हमारे विचार प्रभावित होते हैं। यदि हम मन, वचन और कर्म से पवित्र होना चाहते हैं, तो इसके लिए हमें शाकाहार अपनाना चाहिए क्योंकी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण का आदेश भी यही है....

वरुण गोयल



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