Wednesday, April 1, 2009

एक दीया तो जलाता हूँ

एक दीया तो जलाता हूँ
पर उसकी चमक को बरक़रार नहीं रख पाता हूँ
शब्द तो जैसे तैसे जुड़ जाते हैं
पर कविता पूरी नहीं कर पाता हूँ
दिशाएं तो तय कर लेता हूँ
मगर मंजिल तक नहीं पहुँच पाता हूँ
भरोसा कर लेता हूँ अनदेखे अनजाने चेहरों पर
शायद सबको अपने जैसा समझ पाता हूँ
" तो क्या प्रयास करना छोड़ दूं
इन असफलताओं से घबराकर राह पकड़ना छोड़ दूं "
कुछ नहीं छोडूंगा
हर राह अपनी तरफ मोडूँगा
क्या अपने आप से उम्मीद करना बेमानी है
यह नई कोशिश की फिर एक कहानी है
प्रयास के साथ उम्मीद जारी रहेगी
देखना एक दिन यह कविता ज़रूर पूरी होगी

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